मैं अनाथालय के अंदर घुसी और दो नन्हें-नन्हें बच्चे मुझसे आकर चिपट गए। शायद उन्हें किसी ने पहले ही बता दिया था कि आज तुम्हारे मम्मी-पापा आने वाले हैं। उनकी इस लिपटन ने मेरे आंचल में ममता की बूंदें और कंधों पर जिम्मेदारी का अहसास छिटक दिया, लेकिन इन बच्चों की देखभाल के लिए मेरी कंपनी ने 6 हफ्तों का समय दिया। बस यहीं से गोद लेने वाली और जन्म देने वाली मां के लिए मातृत्व लाभ में भेदभाव के खिलाफ मेरी लड़ाई शुरू हो गई। ये शब्द हैं, बैंग्लोर की 32 साल की वकील हमसानंदिनी नंदूरी के।
जब पहली बार बच्चों ने पसंद की चीजें
हमारी भाषा में भी अंतर था। इन्हें अंग्रेजी सिखाई। मेरी बेटी पांच साल की थी और पांच साल तक बच्चा अपना एक माइंडसेट बना लेता है। वो घर में किसी रिश्तेदार की तरह रहती, लेकिन धीरे-धीरे मैंने उन्हें अपना बना लिया। जब पहली बार बच्चों ने इडली खाना पसंद किया और अंग्रेजी में बोलना शुरू किया तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। इस दौरान मैं एक लॉ फर्म में काम कर रही थी। कंपनी को एडॉप्शन के बारे में बताया तो नियम के मुताबिक, उन्होंने मुझे 6 हफ्ते का समय दिया, जबकि जन्म देने वाली मां को 26 हफ्ते की मैटरनिटी लीव मिलती है।
सामाजिक और कानूनी लड़ाई साथ-साथ
मैं एक तरफ कानूनी लड़ाई लड़ रही थी तो दूसरी ओर सामाजिक। हमारे समाज में जो मां बच्चे को जन्म देती है तो उसे सलाह देने वाले बहुत होते हैं, लेकिन मुझे कोई सलाह नहीं मिली। जैसे समाज हमें मां समझता ही नहीं। हमें समाज अजीब सी नजरों से देखता है। लोग सलाह देने के नाम पर चुप हो जाते हैं, लेकिन मुझे अपने बच्चों को बहुत प्यार देना था। उन्हें अच्छे स्कूल में दाखिला कराना है। उन्हें हर वो बात सिखानी है जो कोई जन्म देने वाली मां सिखाती। अब ये बच्चे इसे अपना घर समझते हैं। मेरी कंपनी और साथियों ने भी बहुत मदद की।