
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा 13 मई 2025 को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत भेजे गए संदर्भ पर सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ ने 111 पन्नों की विस्तृत “Opinion of the Court” जारी की है।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली इस पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिम्हा और ए.एस. चंदुरकर शामिल थे।
पीठ ने स्पष्ट किया कि अदालत राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए बिलों पर निर्णय लेने की कोई समय-सीमा तय नहीं कर सकती, लेकिन राज्यपाल जानबूझकर लंबी, टालमटोल वाली निष्क्रियता का सहारा लेकर जन-इच्छा को रोक नहीं सकते।
नीचे जानिए राष्ट्रपति के 14 प्रश्नों पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा—
1. राज्यपाल के पास अनुच्छेद 200 के तहत कौन-कौन से विकल्प हैं?
राज्यपाल के पास तीन संवैधानिक विकल्प हैं:
- बिल को स्वीकृति देना
- राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करना
- स्वीकृति रोककर बिल को टिप्पणियों सहित वापस भेजना (यह केवल गैर-मनी बिल पर लागू)
2. क्या राज्यपाल बिल पर निर्णय लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे होते हैं?
नहीं। अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल इन तीन विकल्पों का उपयोग अपने विवेक से करते हैं। वे मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य नहीं हैं।
3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल का विवेक न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है?
सामान्यतः नहीं। अदालत राज्यपाल के निर्णय के गुण-दोष की समीक्षा नहीं कर सकती।
लेकिन लंबी, अस्पष्ट और अनिश्चित निष्क्रियता की स्थिति में अदालत राज्यपाल को एक सीमित निर्देश (mandamus) दे सकती है कि वे उचित समय में निर्णय लें।
4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल के कार्यों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह रोकता है?
अनुच्छेद 361 राज्यपाल को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा देता है,
लेकिन यह अदालत की उस सीमित समीक्षा को नहीं रोक सकता जिसमें संवैधानिक निष्क्रियता पर प्रश्न उठता है।
5. समय-सीमा तय न होने पर क्या अदालत राज्यपाल के लिए समय-सीमा तय कर सकती है?
नहीं। अदालत अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने के लिए न्यायिक समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकती।
6. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति का निर्णय न्यायिक समीक्षा योग्य है?
नहीं। बिल्कुल राज्यपाल की तरह राष्ट्रपति का निर्णय भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आता।
7. क्या राष्ट्रपति के लिए भी अदालत समय-सीमा तय कर सकती है?
नहीं। अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति पर भी अदालत कोई न्यायिक समय-सीमा लागू नहीं कर सकती।
8. क्या राष्ट्रपति को हर बार अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेनी चाहिए?
नहीं। राष्ट्रपति तभी अनुच्छेद 143 का सहारा लेते हैं जब उन्हें आवश्यकता लगे।
हर बार ऐसा करना अनिवार्य नहीं।
9. क्या बिल के कानून बनने से पहले अदालत हस्तक्षेप कर सकती है?
नहीं।
न तो राज्यपाल/राष्ट्रपति का निर्णय न्यायिक समीक्षा योग्य है,
न ही अदालत बिल की सामग्री की जांच कर सकती है जब तक वह कानून न बन जाए।
अनुच्छेद 143 के तहत राय देना न्यायिक निर्णय नहीं माना जाता।
10. क्या अनुच्छेद 142 के तहत अदालत राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को बदल सकती है?
नहीं।
अनुच्छेद 142 के तहत अदालत उनके निर्णयों का स्थानापन्न नहीं बन सकती।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि “deemed assent” (कल्पित स्वीकृति) का प्रावधान संविधान में नहीं है।
11. क्या राज्यपाल की स्वीकृति के बिना कोई राज्य विधेयक कानून बन सकता है?
नहीं।
राज्यपाल की स्वीकृति के बिना विधेयक कानून नहीं बन सकता।
राज्यपाल की भूमिका किसी अन्य संवैधानिक प्राधिकारी द्वारा नहीं निभाई जा सकती।
12. क्या संविधान के अनुच्छेद 145(3) के तहत हर मामले में यह तय करना जरूरी है कि मामला “महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न” है?
अदालत ने कहा कि यह प्रश्न इस संदर्भ के लिए अप्रासंगिक है, इसलिए इसे अनुत्तरित छोड़ा जाता है।
13. क्या अनुच्छेद 142 अदालत को मौजूदा कानून के विपरीत आदेश देने की शक्ति देता है?
अदालत ने कहा कि यह प्रश्न बहुत व्यापक है और इसका निश्चित उत्तर संभव नहीं।
इस संदर्भ में अनुच्छेद 142 की सीमाओं का उत्तर प्रश्न 10 में दिया जा चुका है।
14. क्या अनुच्छेद 131 के अलावा केंद्र-राज्य विवादों पर निर्णय का कोई अन्य मार्ग है?
यह प्रश्न भी इस संदर्भ से अप्रासंगिक माना गया और अनुत्तरित छोड़ा गया।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि—
- अदालत राज्यपाल/राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा तय नहीं कर सकती,
- परंतु वे निष्क्रियता का हथियार बनाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा नहीं डाल सकते,
- और अदालत लंबी निष्क्रियता में सीमित हस्तक्षेप कर सकती है।