शर्मिष्ठा पनौली विवाद: कलकत्ता हाई कोर्ट ने अंतरिम जमानत से किया इनकार, कहा ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ दूसरों को ठेस पहुंचाना नहीं’

कोलकाता — इंस्टाग्राम कंटेंट क्रिएटर और कानून की छात्रा शर्मिष्ठा पनौली को कलकत्ता हाई कोर्ट से अंतरिम राहत नहीं मिली। मंगलवार को कोर्ट ने उनकी अंतरिम जमानत याचिका खारिज कर दी और टिप्पणी की कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं कि आप दूसरों को ठेस पहुँचाएं।”

मामले की सुनवाई कर रहे न्यायमूर्ति पार्थ सारथी चटर्जी ने कहा, “हमारे देश में विभिन्न जातियों, धर्मों और समुदायों के लोग रहते हैं। हमें बोलते समय सावधानी बरतनी चाहिए। इसलिए अगर दो दिन के लिए कुछ रुक भी जाए तो आसमान नहीं टूट पड़ेगा।”

वायरल वीडियो और गिरफ्तारी

शर्मिष्ठा पनौली ने कथित तौर पर “ऑपरेशन सिंदूर” के संदर्भ में एक विशेष धार्मिक समुदाय के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी वाले वीडियो बनाए थे, जिन्हें बाद में उन्होंने डिलीट कर दिया। पुलिस के अनुसार, इन वीडियो में बॉलीवुड हस्तियों की चुप्पी पर टिप्पणी करते हुए अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया गया था।

वीडियो वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर #ArrestSharmistha ट्रेंड करने लगा और इंस्टाग्राम पर उन्हें भारी आलोचना का सामना करना पड़ा, जिसके बाद उन्होंने वीडियो हटाकर सार्वजनिक माफ़ी मांगी। लेकिन इसके बावजूद कोलकाता पुलिस ने पिछले सप्ताह उन्हें गिरफ्तार कर लिया। शनिवार को उन्हें अलीपुर कोर्ट में पेश किया गया, जहां से उन्हें 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।

कानूनी दलीलें

पनौली की ओर से पेश अधिवक्ता मोहम्मद समीमुद्दीन ने कोर्ट में दलील दी कि गिरफ्तारी गैरकानूनी थी क्योंकि एफआईआर में जिन धाराओं का उल्लेख है, वे गैर-संज्ञेय अपराधों की श्रेणी में आती हैं, और नए भारतीय न्याय संहिता (BNSS) के अनुसार बिना पूर्व सूचना के गिरफ्तारी नहीं की जा सकती थी।

उनके वकील ने यह भी बताया कि शर्मिष्ठा की सेहत अलीपुर महिला सुधार गृह में बिगड़ रही है और वहां उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा और स्वच्छता नहीं मिल रही।

शिकायत और धाराएं

पुलिस सूत्रों के अनुसार, पनौली के खिलाफ दर्ज एफआईआर में BNSS की धारा 196(1)(a) (धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना), 299 (जानबूझकर धार्मिक भावनाएं भड़काने के उद्देश्य से किया गया कार्य), 352 (शांति भंग की मंशा से किया गया अपमान), और 353(1)(c) (जनता को भड़काने वाले बयान) शामिल हैं।

यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन पर एक नई बहस को जन्म दे रहा है, खासकर सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के दौर में।