बदलाव हमेशा डंडे के जोर पर नहीं लाया जा सकता। कभी-कभी खुद डंडा खाकर, प्यार से और दूसरों के हित में झूठ बोलकर भी लाया जाता है। ऐसा ही मैंने किया। जबसे मुझे जेंडर की समझ बनी तबसे मैंने गांव की बाकी महिलाओं के बीच उस समझ के बीच बोने शुरू कर दिए। इस बदलाव के लिए मैंने जेंडर की मोटी-मोटी किताबें नहीं पढ़ीं, बल्कि जो गैर बराबरी खुद के साथ देखी उसके खिलाफ लड़ी। इसका खामियाजा भी मुझे रोज पति की मार-खसोट के साथ भुगतना पड़ा, लेकिन रुकी नहीं। जिंदगी को किसी पठार की तरह ऊपर और नीचे जाने दिया। यही वजह है कि आज मैं अपने गांव में महिलाओं के साथ उनसे जुड़े मुद्दों पर बात करती हूं और साथ ही खेती की नई तकनीक के बारे में बताती हूं ताकि वो कमरतोड़ मेहनत से बच सकें। ये शब्द हैं 37 साल की सरिता राउत के।समाजसेविका सरिता भास्कर वुमन से बातचीत में कहती हैं, ‘मेरा जन्म नक्सल प्रभावित एरिया सेरवी गांव में हुआ। बचपन में मैं जितनी अल्हड़ और मौजमौला थी बड़ी होने पर उतनी ही मायूस और गुमसुम हो गई। घनें जंगलों के बीच खेलना-कूदना, टहनियों पर चढ़कर गिलहरी की तरह फुदकना। पर एक दिन ये फुदकना, चहकना सब बंद हो गया। पांचवी तक की पढ़ाई गांव में की। छठी में गांव से छह किलोमीटर दूर पढ़ने जाना था। आठवीं पास की कि एक दिन नक्सलियों ने दंगा कर दिया। रास्ते में एक दरोगा को मार दिया। उसके बाद गांव में दहशत फैल गई। हम लड़कियों का स्कूल जाना बंद कर दिया। हमें बताया गया कि स्कूल नहीं जाना है। रास्ते में कुछ लड़कियों के बलात्कार भी हो गए। नक्सली तुम्हें भी पकड़ लेंगे। माहौल में इतना डर था कि पूरा का पूरा गांव शहर में आ गया। हमारा परिवार भी महाराष्ट्र के गोंदिया शहर में कमाने के लिए आ गया।
शादी के बाद पति की झेली मार
इस बीच में पढ़ाई रुक गई। जब गांव का माहौल शांत हुआ तब हम सब वापस आ गए। अब मैं 18 साल की हो गई और घर वालों ने शादी कर दी। सोचा था मायके में बहुत सुख नहीं मिला है तो ससुराल में राज करूंगी, लेकिन यहां आकर तो दुख की दास्तान शुरू हुई। मुझे इतने गहने और जेवर नहीं मिले थे जितनी पति की मार के निशान मेरे शरीर पर पड़ गए थे। शादी के शुरुआती सालों में पति ने खूब प्यार किया। बाद में छोटी-छोटी गलतियों पर कुछ नहीं तो दो थप्पड़ जड़ दिए। घर का का सारा काम करती, लेकिन फिर भी रात को पति के सामने मेरी शिकायत की जाती कि मैं ठीक से काम नहीं करती हूं। इसी मार कुटाई के बीच एक बेटी भी हो गई। घर में सास-ससुर नहीं थे। जेठ और जेठानी ने हम पति-पत्नी को अलग कर दिया।
इस तरह सीखीं जेंडर की बातें
2009 में एक संस्था जिसका नाम प्रदान है, वो गांव में आई। वे महिलाओं का ग्रुप बना रहे थे। उन्हें एक ऐसी महिला की तलाश थी जो थोड़ी पढ़ी-लिखी हो और महिलाओं का खाता संभाल सके। गांव वालों ने मेरा नाम उन्हें बता दिया। प्रदान ने मुझे महिलाओं का खाता संभालना के लिए रख लिया। उस ग्रुप में कई महिलाएं जुड़ी थीं, जो हर सप्ताह 10-10 रुपए देकर बचत करती थीं। यहां मैंन भी बचत करना सीखा। इस बचत की ट्रेनिंग के बीच हमें धीरे-धीरे जेंडर की ट्रेनिंग दी जाने लगी। जब कानों में ये शब्द गए कि ‘हमेशा महिलाएं ही घर का काम क्यों करें?, हमेशा वे ही पति की पिटाई क्यों खाएं?, वे अपनी मर्जी का कुछ क्यों नहीं पातीं?’ तब लगा कि ये सारी वे बातें हैं जिन्हें मैं रोज झेलती हूं। जेंडर की ट्रेनिंग में जाने में मुझे अपनापन लगता। अब मैं कोई ट्रेनिंग नहीं छोड़ती। जब पति को मालूम हुआ कि मैं इस तरह के समूह में जाती हूं तो उन्होंने मुझे बहुत मारा।घर पर अगर काम पूरा करके नहीं गई या खाने में कुछ कमी हो गई तो फिर पिटाई पड़ती। मैं रोज पिटती और समूह की मीटिंग में जाती। इसी दौरान मैंने जाना कि हम महिलाएं ही शादी के बाद सिंदूर क्यों लगाती हैं या पल्लू क्यों करती हैं? इन पैमानों को मैंने नकारना शुरू किया तो फिर पति से लेकर आसपास के लोगों से भी सुनना पड़ा। एक दिन पति ने रात के दो बजे मारा। मैं भी गुस्से में घर से निकली और मायके पहुंच गई। मेरे जाने पर समूह का काम रुक गया क्योंकि उनका खाता मैं देखती थी। जब ये बात संस्था वालों को मालूम हुई तब वे मुझे ढूंढ़ते हुए मेरे घर आए और मुझे और पति को समझाया। पति को चेतावनी दी कि अगर दोबारा सरिता को मारा तो हम तुम्हें भी मारेंगे। फिर गांव की महिलाओं ने भी ‘तुम्हारे भैया’ (पति) को समझाया कि इन्हें काम पर आने दो, हमारा खाता संभालती हैं। इस तरह से मैंने फिर से काम करना शुरू किया।
बेइज्जती होने पर छोड़ दिया काम
गांव में महिलाओं के पास फोन नहीं होते। उनके पतियों के पास होते हैं। मुझे महिलाओं की अलग-अलग समय पर अलग विषयों पर ट्रेनिंग लेनी पड़ती। इस बार मैं महिलाओं को खेतीबाड़ी की नई टेक्नीक बता रही थी। ये ऐसी मशीनें हैं जिनसे महिलाओं का काम आसान हो जाता है। उन्हें कमरतोड़ मेहनत नहीं करनी पड़ती। जब किसी दूसरे गांव में ट्रेनिंग के लिए जाना पड़ता था तब मैं उस गांव के किसी पुरुष को फोन करके कह देती कि आप महिलाओं को इकट्ठा कर लीजिए। जिस पुरुष को फोन करके महिलाओं को इकट्ठा करने को कहा था उसकी पत्नी ने मेरे पति को कहा कि तुम्हारी बीवी मेरे पति से रात को बात करती है। मेरे ऊपर उस महिला ने बहुत गंदे लांछन लगाए। गांव में बदनाम किया। पति ने भी बहुत पीटा। इसके बाद मुझे लगा कि अब मैं ये काम नहीं करूंगी। मुझे बहुत बेइज्जती महसूस हो रही थी। एक ऐसे गुनाह की सजा मिल रही थी जो मैंने किया ही नहीं था।
दूसरी बेटी भी बड़ी हो रही थी तो उसकी देखभाल में लग गई। घर में दो साल निकाल दिए। इस बार मुझे फिर संस्था ने काम पर लगाया क्योंकि मेरी जगह पर जो लड़का का काम कर रहा था उसे दूसरी जगह नौकरी मिल गई। अब तक प्रदान के साथ अलग-अलग मुद्दों पर ट्रेनिंग ले चुकी हूं।खेती की नई तकनीक समझा रहीं सरिता
इन दिनों महिलाओं को खेतीबाड़ी की नई मशीनरी के गुर सिखा रही हूं। ट्रैक्टर में एक ऐसी मशीन जोड़ते हैं जिससे खाद और बीज एक साथ जमीन पर गिरते हैं। इससे महिलाओं का काम आसान हो जाता है। अभी तक महिलाओं को खेती में कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती थी अब इन मशीनों की मदद से काम आसान हो गया है। साथ ही उन्हें बताते हैं कि किसी पौधे में कितना पानी देना है। अगर कोई नई फसल जैसे मशरूम उगा रहे हैं तो उसकी पूरी ट्रेनिंग उन्हें देते हैं। इस ट्रेनिंग से फर्क ये आया है कि अभी तक किसान मतलब पुरुष समझा जाता था, लेकिन अब महिला किसान है। पहले महिलाओं की मेहनत कोई नहीं पूछता था, लेकिन अब बुआई, रोपाई, बीज बेचने तक में महिलाओं का नाम चलता है। उनका साइन चलता है।
खुद में बदलाव के साथ दूसरों को दे रहीं सीख
ये सब बदलाव मैं इसलिए कर पाई क्योंकि मैं करना चाहती थी। पहले मैं साइकिल नहीं चला पाती थी, लेकिन अब चला लेती हूं। जल्द ही बाइक भी सीखूंगी। खुद में बदलाव कर रही हूं ताकि मेरी बेटियां और बहुओं को अत्याचार न सहना पड़े। आज जो महिलाएं खुद में बदलाव नहीं कर पा रही हैं, लेकिन ट्रेनिंग ले रहीं है। मुझे मालूम है एक दिन वे भी अपनी बेटियों को किसी का आदी नहीं बनाएंगी बल्कि उन्हे स्वतंत्र जीने की राह दिखाएंगी।