नई दिल्ली । बसपा सुप्रीमो मायावती ने बुधवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगाए और कहा कि बसपा को खत्म करने की साजिश रच रही है। बसपा सुप्रीमो ने इसके साथ ही मध्यप्रदेश और राजस्थान के आगामी विधानसभा चुनावों में अकेले लड़ने की बात कहकर गठबंधन की संभावनाओं पर भी फिलहाल के लिए विराम लगा दिया। राजनीतिक विश्लेषक मायावती के इस कदम को मोदी के लिए मास्टर स्ट्रोक बता रहे हैं। वजह ये है कि मायावती के आज के बयान और कांग्रेस पर जड़े आरोप महागठबंधन की अटकलों पर पानी फेरते नजर आ रहे हैं।
मायावती का यह फैसला कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए किसी झटके से कम नहीं, जो भाजपा विरोध के नाम पर पूरे देश में विपक्षी दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं। बसपा के इस फैसले के बाद अगले आम चुनाव के पहले भाजपा और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साझा चुनौती देने की विपक्षी दलों की कोशिश के कामयाब होने के आसार और कम दिखने लगे हैं। विपक्षी दलों का महागठबंधन यदि आकार नहीं ले पा रहा है या अपनी विश्वसनीयता कायम नहीं कर पा रहा है तो इसके लिए उसके नेता ही जिम्मेदार हैं। विपक्षी नेता जिस महागठबंधन की बात कर रहे हैं उसने अब तक न तो कोई सार्थक एजेंडा सामने रखा है और न ही यह स्पष्ट हो सका है कि ऐसे किसी गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा?
मायावती का गुस्सा क्यों फूटा ?
मायावती ने बुधवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस की शुरुआत मध्यप्रदेश में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह के आरोपों पर पलटवार करते हुए कि। दिग्विजय सिंह ने एक निजी टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था कि मायावती पर मोदी सरकार का बहुत दबाव है। इस दौरान दिग्विजय ने मायावती के भाई पर छापेमारी का भी जिक्र किया और सीबीआइ-ईडी का भी। इन्हीं आरोपों पर जवाब देने पहुंची मायावती ने पहले तो जमकर कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह को कोसा और उन्हें भाजपा का एजेंट तक बता दिया। फिर धीरे-धीरे मायावती ने एक-एक कर कांग्रेस की परतें भी उतारनी शुरू कर दीं और अंत में किसी भी हाल में राजस्थान और मध्यप्रदेश में गठबंधन न करने की बात कही।
क्यों है बड़ा झटका?
गौरतलब हो कि बसपा ने कर्नाटक में जेडीएस के साथ गठबंधन किया था। मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्षी दल के नेताओं ने अघोषित रूप से महागठबंधन की झलक पेश की। इस दौरान मायावती और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी एक दूसरे से खूब आत्मीयता से मिलीं। आमतौर पर शांत और चुप रहने वाली सोनिया गांधी ने सार्वजनिक रूप से मायावती के साथ खूब मित्रता दिखाई और दोनों की हंसती हुई फोटो भी अगले दिन अखबारों की सुर्खियां बनीं। लगने लगा कि कांग्रेस और बसपा का गठबंधन होगा और 2019 का चुनावी भवसागर इसी सहारे पार कर लिया जाएगा। लेकिन बुधवार को जिस तरह मायावती का गुस्सा छलका और कांग्रेस पर गंभीर आरोप जड़े उससे इस गठबंधन की संभावनाओं पर फिर सवाल खड़ा हो गया है।
क्यों सवाल उठा रहे कांग्रेस के महागठबंधन के सहयोगी ?
गौरतलब है कि कांग्रेस पर सवाल उठने वाली अघोषित महागठबंधन की मायावती कोई पहली सहयोगी नहीं हैं। इससे पहले कांग्रेस से ही निकले दल एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार और तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष केसीआर भी कांग्रेस को अप्रत्यक्ष रूप से झटका दे चुके हैं। इसमें शरद पवार का राफेल मामले पर मोदी को क्लीन चिट देना और केसीआर का राहुल को मसखरा कहना ऐसे ही उदाहरण हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी नेतृत्व के नजरिए से पिछड़ रहे हैं या फिर छोटी पार्टियों की नजर में अब कांग्रेस वो प्लेयर है, जिसकी जरूरत तो है लेकिन हार के डर से उसे खिलाने का रिस्क कोई लेना नहीं चाहता।
क्या चुनाव में मोदी को लाभ पहुंचाएगी बसपा ?
कयास लगने शुरू हो चुके हैं कि अब कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों के बीच महागठबंधन बनना इतना आसान नहीं होगा। ऐसे में साफ है कि अगर गठबंधन नहीं बनता है तो इसका सीधा फायदा नरेंद्र मोदी और भाजपा को होगा। हालांकि, ये तब होगा जब बाकी दलों में कांग्रेस के प्रति मौजूदा राजनीतिक तल्खी बनी रहे और महागठबंधन आकार न ले। लेकिन राजनीति में कुछ भी अंतिम नहीं होता, इसीलिए हो सकता है कि मायावती ज्यादा सीटें मिलने का वादा लेकर महागठबंधन में चली जाएं। हालांकि, फिलहाल इसकी संभावना कम ही नजर आ रही है, इसीलिए मौजूदा राजनीतिक दांव का सीधा फायदा नरेंद्र मोदी और भाजपा को होता दिख रहा है।
जनता पार्टी vs इंदिरा गांधी
स्वतंत्र भारत में नेता विशेष के खिलाफ गठबंधन का पहला उदाहरण इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ दिखाई देता है। इंदिरा गांधी की सख्त नीतियों और आपातकाल लागू करने से नाराज जनता का मूड भांपकर उस वक्त कई दलों ने इंदिरा के खिलाफ महागठबंधन तैयार किया। इस गठबंधन को जनता पार्टी का नाम दिया गया और भारतीय लोकदल के सिंबल पर चुनाव लड़ा गया। जनता पार्टी के गठबंधन में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, शिरोमणि अकाली दल, पेजैंट्स एंड वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया, रिवॉल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, डीएमके पार्टियां थीं। पहली बार कांग्रेस बुरी तरह हारी, सिर्फ 153 सीट मिलीं। जनता पार्टी की सरकार बनी लेकिन अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। इंदिरा गांधी ने शानदार वापसी की।
यूनाइटेड फ्रंट vs भाजपा
गठबंधन की असफलता का दूसरा उदाहरण यूनाइटेड फ्रंट की सरकारें रहीं हैं। 1996 के चुनाव के बाद 13 पार्टियों ने सरकार चलाने के लिए गठबंधन बनाया और उसे यूनाइटेड फ्रंट का नाम दिया। फ्रंट ने 1996 से 1998 के बीच दो बार सरकार बनाई। पहली बार एच.डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने और दूसरी बार इंद्र कुमार गुजराल। दोनों ही सरकारों को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था। गौरतलब है कि 1996 के चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। भाजपा 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। उससे सरकार बनाने का न्यौता दिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और बहुमत साबित न कर पाने के कारण 13 दिन बाद इस्तीफा देना पड़ा। 140 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने सरकार बनाने से इंकार कर दिया लेकिन गैर भाजपाई सरकार को बाहर से समर्थन देने का ऐलान किया। इस तरह यूनाइटेड फ्रंट का गठन हुआ लेकिन सरकार का कार्यकाल पूरा नहीं हो सका। दो साल में दो प्रधानमंत्री बने और अंततः सरकार गिर गई।