
गोरखपुर के विजय चौक निवासी व्यापारी आनंद रूंगटा के परिवार के लोगों ने कटरे में कुछ दुकानों को पांच दशक पहले किराये पर दिया था। अब इस दुकान का किरायेदारी विवाद जिला जज के कोर्ट में विचाराधीन है।
दुकान का किराया महज 156 रुपये है, इस पर निगम 42 रुपये टैक्स लेता है। यह रकम कोर्ट में ही जमा होती है। लेकिन रूंगटा को इस दुकान के टैक्स के रूप में अलग से 600 रुपये नगर निगम में जमा कराना होता है। यानी किराये से तीन गुना अधिक टैक्स देना पड़ रहा है।
सिर्फ व्यापारी आनंद रूंगटा ही नहीं, शहर के 100 से अधिक लोग जितना किराया पा रहे हैं, उससे कई गुना अधिक टैक्स नगर निगम में जमा कर रहे हैं। किरायेदारी को लेकर समय-समय पर बदल रहे कानून से बड़ी संख्या में लोग प्रभावित होते रहे हैं। रेंट कंट्रोल अधिनियम-1972 के मुताबिक मालिक मकान या दुकान का किराया खुद से नहीं बढ़ा सकता था। 1976 में नगर निगम ने टैक्स लगाना शुरू किया। तब किराये का 27 फीसदी बतौर टैक्स जमा कराना होता था। नगर निगम में हाउस टैक्स के स्व: निर्धारण की प्रक्रिया वर्ष 2003 में शुरू हुई थी। तत्कालीन नगर आयुक्त ओंकार नाथ के समय शुरू की प्रक्रिया में मकान और दुकान के एरिया के हिसाब से हाउस टैक्स का निर्धारण हुआ।
पूरे एरिया पर जमा करना होता है हाउस टैक्स
इसके बाद कोर्ट में विवादित मामलों के बाद भी मकान मालिक को पूरे एरिया पर हाउस टैक्स जमा करना होता है। कोर्ट में लंबित विवाद में कई मामलों में मकान मालिक को मिलने वाले किराये से कई गुना टैक्स निगम में जमा कराना होता है। आर्यनगर में एक संगठन के धर्मशाला के साथ बने दुकानों पर छह अलग-अलग लोगों का दो दशक से अधिक समय से कब्जा है। संगठन को हर साल 25000 से अधिक टैक्स जमा करना पड़ रहा है, लेकिन उन्हें एक रुपये किराया नहीं मिल रहा। आर्यनगर में ही एक प्रमुख सराफा कारोबारी का भी किरायेदारों से लंबे समय से विवाद चल रहा है। जितना किराया मिलता है, उससे छह गुना हाउस टैक्स निगम में जमा कराना पड़ रहा है।
बोले जिम्मेदार
किरायेदारी विवाद कानून व्यवस्था के लिए भी ठीक नहीं है। भवन मालिक व किरायेदार दोनों प्रभावित होते हैं। हजारों लंबित मामलों के शीघ्र निस्तारण के लिए अलग कोर्ट होनी चाहिए। ताकि तय समय में मामलों का निस्तारण हो सके।
पुष्पदंत जैन, उपाध्यक्ष, व्यापारी कल्याण बोर्ड