पीएम मोदी जिनके नाम पर करेंगे विवि का शिलान्यास, अफगानिस्तान में पहली निर्वासित सरकार बनाने वाले राजा महेन्द्र की पूरी कहानी

प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी आज यानी 14 सितम्‍बर को जिन राजा महेन्‍द्र प्रताप सिंह के नाम पर अलीगढ़ में विश्‍वविद्यालय का शिलान्‍यास करने आ रहे हैं उनका देश की आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान था। मुरसान के इस राजा ने करीब 34 वर्षों तक देश से बाहर रहकर संघर्ष किया। पहले विश्‍व युद्ध के दौरान उन्‍होंने अफगानिस्तान में देश की पहली निर्वासित सरकार बनाई। इस सरकार में वे राष्ट्रपति बनाए गए थे। राजा महेन्‍द्र प्रताप सिंह को आयरन पेशवा के नाम से भी जाना जाता था। देश को आजादी मिलने से कुछ पहले 1946 में वे भारत लौटे। सरदार वल्‍लभ भाई पटेल की बेटी ने कोलकाता में उनका स्वागत किया था।

महेन्द्र प्रताप का जन्म एक दिसम्बर 1886 को (अब हाथरस) के मुरसान रियासत के शासक जाट परिवार में हुआ था।  उन्होंने अलीगढ़ में सर सैयद खां द्वारा स्थापित स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। 12वीं के बाद 1907 में कॉलेज छोड़ना पड़ा। इस दौरान पिता घनश्याम की मौत हो के बाद उन्हें रियासत संभालनी पड़ी थी। फिर वे आजादी की लड़ाई में मदद करने लगे। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान लाभ उठाकर वे भारत को आजादी दिलवाने के पक्के इरादे से विदेश गये। उनके अंदर देश को आजाद कराने की उनकी इच्छा प्रबल होती जा रही थी। विदेश जाने के लिए पासपोर्ट नहीं मिला, तो मैसर्स थॉमस कुक एंड संस के मालिक बिना पासपोर्ट के अपनी कम्पनी के पीएंडओ स्टीमर से राजा महेन्द्र प्रताप को इंग्लैंड ले गए। उनके साथ स्वामी श्रद्धानंद के बड़े बेटे हरिचंद्र भी गए। यहां से वह जर्मनी के शासक कैसर से भेंट करने पहुंचे। उन्हें आजादी में हर संभव मदद देने का वचन दिया।

जर्मनी में भारत की अस्थाई सरकार के गठन को राजी नहीं हुए थे काइजर

28 जुलाई 1914 को प्रथम विश्व युद्ध का नगाड़ा बज चुका था। गदर पार्टी ने सैनिक छावनियों के भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों के खिलाफ शस्त्र उठाने के लिये तैयार कर लिया था। बर्लिन में डॉ. पिल्लै, डॉ भूपेन्द्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द के छोटे भाई), ओबेदुल्ला सिंधी, डॉ. मथुरा सिंह आदि क्रांतिकारियों ने बर्लिन में कमेटी बना ली थी। यह कमेटी हथियारों से लदे जहाज भारत की गदर पार्टी को भेजने लगी। पूरे भारत में स्वतंत्रता का रण-यज्ञ प्रारम्भ करने की तारीख 21 फरवरी 1915 तय की गई। इसके साथ तय हुआ कि बर्लिन में भारत की एक आजाद हिन्द सरकार गठित कर ली जाए, जो संघर्ष के काल में स्वतंत्र भारत का प्रतिनिधित्व करे। तब राजा महेन्द्र प्रताप भी भारत से बर्लिन पहुंचे। वह जर्मनी के प्रमुख काइजर से मिले, लेकिन काइजर ने बर्लिन में भारत की अस्थाई सरकार बनवाने के लिए तैयार नहीं हुए। जिसके बाद राजा अफगानिस्तान पहुंचे। जहां एक दिसम्बर 1915 में काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की। जिसके राष्ट्रपति खुद राजा महेन्द्र प्रताप व प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खां बने।

लेनिन से नहीं मिली मदद फिर भी जारी रहा संघर्ष

अफगानिस्तान में भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा होते हुए अफगानों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। तब राजा महेन्द्र प्रताप रूस गए और लेनिन से मिले। लेकिन लेनिन ने कोई सहायता नहीं की। उस समय राजा महेन्द्र प्रताप ने 1920 से 1946 तक कई देशों में भ्रमण किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1940 में जापान में भारतीय एक्सिक्यूटिव की स्थापना की। उनके द्वारा विश्व मैत्री संघ की स्थापना की गई। 1946 में वह जब भारत लौटे तो सरदार पटेल की बेटी मणिबेन उनको लेने के लिए कलकत्ता हवाई अड्डे गईं थीं।

1909 में वृंदावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना

1906 में राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया और वहाँ से स्वदेशी के रंग में रंगकर लौटे। जिसके बाद 1909 में वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की। जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। मदनमोहन मालवीय इसके उद्घाटन समारोह में उपस्थित रहे थे। उनकी दृष्टि विशाल थी। वे जाति, वर्ग, रंग, देश आदि के द्वारा मानवता को विभक्त करना घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे।