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संसद का पूरा मानसून सत्र विपक्षी हंगामे की भेंट चढ़ गया जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं

 संसद के मानसून सत्र का समापन हो चुका है। मंगलवार को भारतीय संसदीय इतिहास की एक मिसाल देने वाली घटना हुई जिसके तहत लोकसभा का एकमात्र कार्य बिना किसी हंगामे के संपन्न हुआ। जबकि पूरे सत्र के दौरान कोई भी विधायी कार्य हंगामे के बिना संपन्न नहीं हुआ। सदन को विपक्ष के हंगामे के कारण स्थगित करते रहने की मजबूरी ने संसद के करोड़ों रुपये खर्च कराए और इस दौरान कोई उत्पादक कार्य नहीं हो सका। साथ ही इससे संसदीय परंपरा के प्रति एक नकारात्मक छवि का निर्माण भी हुआ। इस सत्र को कई मायने में गैर उत्पादक कहा जा सकता है। हालांकि विपक्षी हंगामे के कारणों को समझते हुए सरकार ने चर्चा के लिए पर्याप्त अवसर दिया, ताकि सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से चल सके।

यह बड़ी गंभीर स्थिति है जहां विधायी कार्य को बिना विस्तृत और परिपक्व चर्चा के साथ संपन्न करना पड़ा। विपक्ष लगातार पेगासस, कृषि कानून विरोधी आंदोलन और महंगाई जैसे मुद्दे पर कामकाज को बाधित करता रहा। किंतु जब मंगलवार को सूचीबद्ध 127वें संविधान संशोधन विधेयक की बारी आई तो सारे विपक्ष की जबान बंद हो गई और इस विधायी कार्य के दौरान सभी सदस्य ने अपनी सीट पर बैठ कर स्वस्थ परिचर्चा में भाग लिया। कचोटने वाली बात यह रही कि इस सत्र में कई महत्वपूर्ण बिल थे जिन पर चर्चा होनी चाहिए थी। यहां यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ कि तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों की अनदेखी करते हुए ओबीसी मुद्दे पर विपक्ष सरकार के पक्ष में आ गया।

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